सोमवार 9 जून 2025 - 09:25
इस्लामी क्रांति, हौज़ ए इल्मिया क़ुम की बरकतों में से एक है / रहबर-ए-मोअज़्ज़म के रहनुमाई संदेश का शुक्रिया

हौज़ / फ़ुक़्हा की गार्डियन काउंसिल के सदस्य ने उलमा ए इकराम के इस्लाम और मकतब-ए-तशय्यु के मआरिफ़ की हिफ़ाज़त और इशाअत में ऐतिहासिक और तहज़ीबी भूमिका का ज़िक्र करते हुए हौज़-ए-इल्मिया क़ुम को इंक़ेलाब-ए-इस्लामी की तासीस और हिमायत का सरचश्मा बताया।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , फ़ुक़हा की गार्डियन काउंसिल के सदस्य आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद रज़ा मदर्रसी यज़्दी ने हौज़-ए-इल्मिया क़ुम के क़याम (स्थापना) की सदी (शताब्दी) के मौक़े पर कहा, इमाम ख़ुमैनी (रह॰) जो इस इंक़ेलाब की क़यादत कर रहे थे, आयतुल्लाह हाएरी यज़्दी (रह॰) के मुमताज़ (प्रतिष्ठित) शागिर्दों (शिष्यों) में से थे और यह उसी हौज़ा की बरकतों का नतीजा था। 

उन्होंने कहा, उलमा-ए-इस्लाम दरअस्ल दुनिया तक इस्लाम का पैग़ाम पहुँचाने वाले हैं और मकतब-ए-तशय्यु और उसकी तहज़ीबी फ़िक्र को भी इन्हीं उलमा ने दुनिया तक पहुँचाया है। 

आयतुल्लाह मदर्रसी यज़्दी ने कहा, उलमा-ए-किराम ग़ैबत-ए-सुग़रा के आग़ाज़ से लेकर ग़ैबत-ए-कुबरा के दौरान, बल्कि उससे भी पहले से इस्लाम और अहल-ए-बैत (अ॰स॰) की ख़िदमत में मसरूफ़ रहे। उन्होंने अहल-ए-बैत (अ॰स॰) के उलूम (ज्ञान) को समाज तक मुंतक़िल किया और इल्मी व अमली दोनों मैदानों में दीन और मआरिफ़ के मुबल्लिग (प्रचारक) रहे। 

आयतुल्लाह मदर्रसी यज़्दी ने आगे कहा, नजफ़ अशरफ़, उससे पहले कूफ़ा और दूसरे उन इलाक़ों में जहाँ शिया मौजूद थे, बड़े-बड़े उलमा ने दीनी सरगर्मियाँ (गतिविधियाँ) अंजाम दीं।

यहाँ तक कि कुछ ऐसे इलाक़ों में जहाँ शिया अक़्सरियत (बहुमत) में नहीं थे, उलमा ने बड़ी मुश्किलात के बावजूद मआरिफ़-ए-अहल-ए-बैत को महफ़ूज़ रखा, हालाँकि उनकी क़द्र व मंज़िलत आज भी पूरी तरह शिनाख़्ता (पहचानी) नहीं है। 

उन्होंने दौर-ए-मोआसिर में उलमा के किरदार की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, जैसा कि रहबर-ए-मोअज़्ज़म क्रांति बार-बा इरशाद फ़रमा चुके हैं, मरहूम आयतुल्लाह शेख़ अब्दुल करीम हाएरी यज़्दी (रह॰) बड़ी दुश्वार (कठिन) ऐतिहासिक हालात में इराक़ से ईरान आए और हौज़-ए-इल्मिया क़ुम की अज़ीम बुनियाद को दोबारा इस्तिवार (मजबूत) किया। 

आयतुल्लाह मदर्रसी यज़्दी ने कहा, हाज़ शेख़ अब्दुल करीम हाएरी यज़्दी (रह॰) ने सख़्तियों और महरूमियों को बर्दाश्त करते हुए अपने शागिर्दों के हमराह (साथ) इस मुबारक शजर को क़ुम में लगाया, जो अल्लाह के फ़ज़्ल से दिन-ब-दिन मज़बूततर हुआ और मराजय ए सलासा (तीन मरजा) के दौर में तरक्की पाया।

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